Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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सदन जब घर पर पहुंचा, तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मंसूबे बांधता, हर्ष से उल्लसित घर आए और यहां संदूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी है।

विचारों की स्वतंत्रता विद्या, संगति और अनुभव पर निर्भर होती है। सदन इन सभी गुणों से रहित था। यह उसके जीवन का वह समय था, जब हमको अपने धार्मिक विचारों पर, अपनी सामाजिक रीतियों पर एक अभिमान-सा होता है। हमें उनमें कोई त्रुटि नहीं दिखाई देती, जब हम अपने धर्म के विरुद्ध कोई प्रमाण या दलील सुनने का साहस नहीं कर सकते, जब हममें क्या और क्यों का विकास नहीं होता। सदन को घर से निकल भागना स्वीकार होता, इसके बदले कि वह घर की स्त्रियों को गंगा नहलाने ले जाए। अगर स्त्रियों की हंसी की आवाज कभी मरदाने में जाती तो वह तेवर बदले घर में आता और अपनी मां को आड़े हाथों लेता। सुभद्रा ने अपनी सास का शासन भी ऐसा कठोर न पाया था। आत्म-पतन को वह दार्शनिक की उदार दृष्टि से नहीं, शुष्क योगी की दृष्टि से देखता था कि उसके गांव में एक ठाकुर ने एक बेड़िन बैठा ली थी, तो सारे गांव ने उसके द्वार पर आना-जाना छोड़ दिया था और इस तरह उसके पीछे पड़े कि उसे विवश होकर बेड़िन को घर से निकालना पड़ा। निःसंदेह वह सुमनबाई पर जान देता था, लेकिन उनके लौकिक-शास्त्र में यह प्रेम उतना अक्षम्य न था, जितना सुमन की परछाईं का उसके घर में आ जाना। उसने अब तक सुमन के यहां पान तक न खाया था। वह अपनी कुल-मर्यादा और सामाजिक प्रथा को अपनी आत्मा से कहीं बढ़कर महत्त्व की वस्तु समझता था। उस अपमान और निंदा की कल्पना ही उसके लिए असह्य थी, जो कुलटा स्त्री से संबंध हो जाने के कारण उसके कुल पर आच्छादित हो जाती। वह जनवासे में पंडित पद्मसिंह की बातें सुन-सुनकर अधीर हो रहा था। वह डरता था कि चाचा साहब को क्या हो गया है? अगर यही बातें किसी दूसरे मनुष्य ने की होतीं, तो वह अवश्य उसकी जबान पकड़ लेता। लेकिन अपने चाचा से वह बहुत दबता था। उसे उनका प्रतिवाद करने की बड़ी प्रबल इच्छा हो रही थी, उसकी तार्किक शक्ति कभी इतनी सतेज न हुई थी, और वाद-विवाद तर्क ही तक रहता, तो वह जरूर उनसे उलझ पड़ता। लेकिन मदनसिंह की उद्दंडता ने उसके प्रतिवाद की उत्सुकता को सहानुभूति के रूप में परिणत कर दिया।

इधर से निराश होकर सदन का लालसापूर्ण हृदय फिर सुमन की ओर लपका। विषय-वासना का चस्का पड़ जाने के बाद उसकी प्रेम-कल्पना निराधार नहीं रह सकती थी। उसका हृदय एक बार प्रेम-दीपक से आलोकित होकर अब अंधकार में नहीं रहना चाहता था। वह पद्मसिंह के साथ ही काशी चला गया।

किंतु यहां आकर वह एक बड़ी दुविधा में पड़ गया। उसे संशय होने लगा कि कहीं सुमनबाई को ये सब समाचार मालूम न हो गए हों। वह वहां स्वयं तो न रही होगी, लोगों ने उसे अवश्य ही त्याग दिया होगा, लेकिन उसे विवाह की सूचना जरूर दी होगी। ऐसा हुआ होगा तो कदाचित् वह मुझे सीधे मुंह बात न करेगी। संभव है, वह मेरा तिरस्कार भी करे। लेकिन संध्या होते ही उसने कपड़े बदले, घोड़ा कसवाया और दालमंडी की ओर चला। प्रेम-मिलाप की आनंदपूर्ण कल्पना के सामने वे शंकाएं निर्मूल हो गईं। वह सोच रहा था कि सुमन मुझसे पहले क्या कहेगी, और मैं उसका क्या उत्तर दूंगा। कहीं उसे कुछ न मालूम हो और वह जाते ही प्रेम से मेरे गले लिपट जाए और कहे कि तुम बड़े निठुर हो! इस कल्पना ने उसकी प्रेमाग्नि को और भी भड़काया, उसने घोड़े को एड़ लगाई और एक क्षण में दालमंडी के निकट आ पहुंचा। पर जिस प्रकार एक खिलाड़ी लड़का पाठशाला के द्वार पर भीतर जाते हुए डरता है, उसी प्रकार सदन दालमंडी के सामने आकर ठिठक गया। उसकी प्रेमकांक्षा मंद हो गई। वह धीरे-धीरे एक ऐसे स्थान पर आया, जहां से सुमन की अट्टालिका साफ दिखाई देती थी। यहां से उसने कातर नेत्रों से उस मकान की ओर देखा। द्वार बंद था, ताला पड़ा हुआ था। सदन के हृदय से एक बोझ-सा उतर गया। उसे कुछ वैसा ही आनंद हुआ, जैसा उस मनुष्य को होता है, जो पैसा न रहने पर भी लड़के की जिद से विवश होकर खिलौने की दुकान पर जाता है और उसे बंद पाता है।

लेकिन घर पहुंचकर सदन अपनी उदासीनता पर बहुत पछताया। वियोगी पीड़ा के साथ-साथ उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। उसे किसी प्रकार धैर्य न होता था। रात को जब सब लोग खा-पीकर सोए, तो वह चुपके से उठा और दालमंडी की ओर चला। जाड़े की रात थी, ठंडी हवा चल रही थी, चंद्रमा कुहरे की आड़ से झांकता था और किसी घबराए हुए मनुष्य के समान सवेग दौड़ता चला जाता था। सदन दालमंडी तक बड़ी तेजी से आया, पर यहां आकर फिर उसके पैर बंध गए। हाथ-पैर की तरह उत्साह भी ठंडा पड़ गया। उसे मालूम हुआ कि इस समय यहां मेरा आना अत्यंत हास्यास्पद है। सुमन के यहां जाऊं तो वह मुझे क्या समझेगी! उसके नौकर आराम से सो रहे होंगे। वहां कौन मुझे पूछता है! उसे आश्चर्य होता था कि मैं यहां कैसे चला आया! मेरी बुद्धि उस समय कहीं चली गई। अतएव वह लौट पड़ा।

दूसरे दिन संध्या समय वह फिर चला। मन में निश्चय कर लिया था कि अगर सुमन ने मुझे देख लिया और बुलाया तो जाऊंगा, नहीं तो सीधे अपनी राह चला जाऊंगा। उसका मुझे बुलाना ही बतला देगा कि उसका हृदय मेरी तरफ से साफ है। नहीं तो इस घटना के बाद वह मुझे बुलाने ही क्यों लगी। कुछ और आगे बढ़कर उसने फिर सोचा, क्या वह मुझे बुलाने के लिए झरोखे पर बैठी होगी। उसे क्या मालूम कि मैं यहां आ गया। यह नहीं, मुझे एक बार स्वयं उसके पास चलना चाहिए। सुमन मुझसे कभी नाराज नहीं हो सकती। और जो नाराज भी हो तो क्या मैं उसे मना नहीं सकता? मैं उसके सामने हाथ जोड़ूगा, उसके पैर पडूंगा और अपने आंसुओ से उसके मन का मैल धो दूंगा। वह मुझसे कितनी ही रूठे, लेकिन मेरे प्रेम का चिह्न अपने हृदय से नहीं मिटा सकती। आह! वह अगर अपने कमल नेत्रों से आंसू भरे हुए मेरी ओर ताके, तो मैं उसके लिए क्या न कर डालूंगा? यदि उसे कोई चिंता हो तो मैं उस चिंता को दूर करने के लिए अपने प्राण तक समर्पण कर दूंगा। तो क्या वह इस अपराध को क्षमा न करेगी? लेकिन ज्योंही दालमंडी के सामने पहुंचा, उसकी प्रेम-कल्पनाएं उसी प्रकार नष्ट हो गईं, जैसे अपने गांव में संध्या समय नीम के नीचे देवी की मूर्ति देखकर उसकी तर्कनाएं नष्ट हो जाती थीं। उसने सोचा, कहीं वह मुझे देखे और अपने मन में कहे, ‘वह जा रहे हैं, कुंवर साहब, मानो सचमुच किसी रियासत के मालिक हैं! कैसा कपटी, धूर्त है!’ यह सोचते ही उसके पैर बंध गए। आगे न जा सका।

इसी प्रकार कई दिन बीत गए। रात और दिन में उसकी प्रेम-कल्पनाएं, जो बालू की दीवार खड़ी करतीं, वे संध्या समय दालमंडी के सामने अविश्वास के एक ही झोंके में गिर पड़ती थीं।

एक दिन वह घूमते हुए वह क्वींस पार्क जा निकला। वहां एक शामियाना तना हुआ था लोग बैठे हुए प्रोफेसर रमेशदत्त का प्रभावशाली व्याख्यान सुन रहे थे। सदन घोड़े से उतर पड़ा और व्याख्यान सुनने लगा। उसने मन में निश्चय किया कि वास्तव में वेश्याओं से हमारी बड़ी हानि हो रही है। ये समाज के लिए हलाहल के तुल्य हैं। मैं बहुत बचा, नहीं तो कहीं का न रहता। उन्हें अवश्य शहर के बाहर निकाल देना चाहिए। यदि ये बाजार में न होतीं, तो मैं सुमनबाई के जाल में कभी न फंसता।

दूसरे दिन वह फिर क्वींस पार्क की तरफ गया। आज वहां मुंशी अबुलवफा का भावपूर्ण ललित व्याख्यान हो रहा था। सदन ने उसे भी ध्यान से सुना। उसने विचार किया, निःसंदेह वेश्याओं से हमारा उपकार होता है। सच तो है, कि ये न हों, तो हमारे देवताओं की स्तुति करने वाला भी कोई न रहे। यह भी ठीक ही कहा है कि वेश्यागृह ही वह स्थान है, जहां हिंदू-मुसलमान दिल खोलकर मिलते हैं, जहां द्वेष का वास नहीं है, जहां हम जीवन-संग्राम से विश्राम लेने के लिए, अपने हृदय के शोक और दुःख भुलाने के लिए शरण लिया करते हैं। अवश्य ही उन्हें शहर से निकाल देना उन्हीं पर नहीं, सारे समाज पर घोर अत्याचार होगा।

कई दिन के बाद वह विचार फिर पलटा खा गया। यह क्रम बंद न होता था। सदन में स्वच्छंद विचार की योग्यता न थी। वह किसी विषय के दोष और गुण तौलने और परखने का सामर्थ्य न रखता था। अतएव प्रत्येक सबल युक्ति उसके विचारों को उलट-पलट देती थी।

उसने एक दिन पद्मसिंह के व्याख्यान का नोटिस देखा। तीन ही बजे से चलने की तैयारी करने लगा और चार बजे बेनीबाग में जा पहुंचा। अभी वहां कोई आदमी न था। कुछ लोग फर्श बिछा रहे थे। वह घोड़े से उतर पड़ा और फर्श बिछाने में लोगों की मदद करने लगा। पांच बजते-बजते लोग आने लगे और आध घंटे में वहां हजारों मनुष्य एकत्र हो गए। तब उसने एक फिटन पर पद्मसिंह को आते देखा। उसकी छाती धड़कने लगी। पहले रुस्तम भाई ने एक छोटी-सी कविता पढ़ी, जो इस अवसर के लिए सैयद तेगअली ने रची थी। उनके बैठने पर लाला विट्ठलदास खड़े हुए। यद्यपि उनकी वक्तृता रूखी थी, न कहीं भाषण-लालित्य का पता था, न कटाक्षों का, पर लोग उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनते रहे। उनके निःस्वार्थ सार्वजनिक कृत्यों के कारण उन पर जनता की बड़ी श्रद्धा थी। उनकी रूखी बातों को लोग ऐसे चाव से सुनते थे, जैसे प्यासा मनुष्य पानी पीता है। उनके पानी के सामने दूसरों का शर्बत फीका पड़ जाता था। अंत में पद्मसिंह उठे। सदन के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी, मानों कोई असाधारण बात होने वाली है। व्याख्यान अत्यंत रोचक और करुणा से परिपूर्ण था। भाषा की सरलता और सरसता मन को मोहती थी। बीच-बीच में उनके शब्द ऐसे भावपूर्ण हो जाते कि रखने का प्रस्ताव इसलिए नहीं किया कि हमें उनसे घृणा है। हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएं, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएं हैं जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया। यह दालमंडी हमारे ही जीवन का कलुषित प्रतिबिंब, हमारे ही पैशाचिक अधर्म का साक्षात स्वरूप है। हम किस मुंह से उनसे घृणा करें। उनकी अवस्था बहुत शोचनीय है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम उन्हें सुमार्ग पर लाएं, उनके जीवन को सुधारें और यह तभी हो सकता है, जब वे शहर से बाहर दुर्व्यसनों से दूर रहें। हमारे सामाजिक दुराचार अग्नि के समान हैं, और अभागिन रमणियां तृण के समान। अगर अग्नि को शांत करना चाहते हैं तो तृण को उससे दूर कर दीजिए, तब अग्नि आप ही-आप शांत हो जाएगी।

सदन तन्मय होकर इस व्याख्यान को सुनता रहा। जब उसके पास वाले मनुष्य व्याख्यान की प्रशंसा करते या बीच-बीच में करतल ध्वनि होने लगती, तो सदन का हृदय गद्गद हो जाता था। लेकिन उसे यह देखकर आश्चर्य होता था कि श्रोतागण एक-एक करके उठे चले जाते हैं। उनमें अधिकांश वे लोग थे, जो वेश्याओं की निंदा और वेश्यागामियों पर चुभने वाली चुटकियां सुनने आए थे। उन्हें पद्मसिंह की यह उदारता असंगत-सी जान पड़ती थी।

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